लेखनी कविता - उनके वादे कल के हैं - बालस्वरूप राही
उनके वादे कल के हैं / बालस्वरूप राही
उनके वादे कल के हैं
हम मेहमाँ दो पल के हैं ।
कहने को दो पलके हैं
कितने सागर छलके हैं ।
मदिरालय की मेज़ों पर
सौदे गंगा जल के हैं ।
नई सुबह के क्या कहने
ठेकेदार धुँधलके हैं ।
जो आधे में छूटी हम
मिसरे उसी ग़ज़ल के हैं ।
बिछे पाँव में क़िस्मत है
टुकड़े तो मखमल के हैं ।
रेत भरी है आँखों में
सपने ताजमहल के हैं ।
क्या दिमाग़ का हाल कहे
सब आसार खलल के हैं ।
सुने आपकी राही कौन
आप भला किस दल के हैं ।